शोध : आयुर्वेद और आरोग्य जीवन !

प्राचीन काल से ही मानव ने बढ़ती उम्र को रोकने और युवा शक्ति को बढ़ने एवं उसके संरक्षण का प्रयास किया है | बढ़ती उम्र को रोकने या उसमें देरी करके दीर्घायु का विस्तार करने के लिए मानव ने बहुत से तरीके अपनाये हैं, आधुनिक चिकित्सा पद्धती ऐसे ही प्रयासों का एक उदहारण है | वृद्धावस्था में व्यक्ति विभिन्न प्रकार की चुनौतियों से मुकाबला करता है, बढ़ती उम्र के साथ कम होती रोग प्रतिरोधक् क्षमता इसका मुख्या कारण माना जाता है |

एक जनसँख्या अनुमान के अनुसार 2030 तक विश्व में हर 5 में से 1 व्यक्ति की उम्र 65 या उस से अधिक होगी | युवाओ की बजाय बुजुर्ग स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग 3 से 5 गुना अधिक करेंगे | आधुनिक चिकित्सा पद्धति ने उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को समझने और वृद्धावस्था में होने वाली तकलीफो जैसे मधुमेह, सीने में दर्द, साँस लेने में तकलीफ, जोड़ो में दर्द एवं कैंसर जैसे रोगो के उपचार के लिए बहुत तरक्की की है | जिससे मानव अब 100 या उससे अधिक साल तक स्वस्थ रूप से जीने के लिए तत्पर है | पर आधुनिकता के इस काल में व्यक्ति की गलत जीवन शैली और खान पान क्र कारण वृद्धावस्था में भी स्वस्थ रह पाना बेहद मुश्किल काम है |

आइये अब बात करते हैं, बढ़ती उम्र के प्रभावों को जानने और उनके रोकथाम के लिए विशेषज्ञों द्वारा किये गए एक शोध पर | इस शोध में उम्र बढ़ने की प्रक्रिया के प्राकर्तिक क्रम के खिलाफ जाने के तरीको पर ध्यान दिया गया है, इसके अलावा बढ़ती उम्र को रोकने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मेडिसिन और खान पान के प्रभावों का भी इसमें ध्यान रखा गया है |

आयुर्वेद में बढ़ती उम्र की व्याख्या :-

आयुर्वेद दुनिया में प्रचलित चिकित्सा प्रणालियों में सबसे आधिकारिक चिकित्सा प्रणाली है, इसमें व्यक्ति के शरीर, मन एवं आत्मा सभी का सटीक व्रणन मिलता है| आयुर्वेद उम्र बढ़ने की विभिन्न प्रणालियों की व्यख्या करता है, चिकित्सा की इस प्रणाली में उम्र बढ़ने के साथ स्वस्थ रहने के लिए उपचार शामिल है ताकि मानव जीवन को स्वस्थ निरोगी बनाया जा सके और व्यक्ति प्रकर्ति के साथ सद्भाव से रह कर एक लम्बा और निरोगी जीवन जी सके |

वृद्धावस्था को शारीरक परिवर्तनों के कुल योग के रूप में परिभाषित किया गया है जो उतरोतर व्यक्ति की मर्त्यु की तरफ जाता है | व्यक्ति की वृद्धावस्था को दो मुख्या घटको में परभाषित किया गया है कालानुक्रमिक घटक जिसमे व्यक्ति की आयु वर्ष, महीने और दिनों में व्यक्त की जाती है यह घटक अप्रवर्तनीय है | दूसरा घटक बायोलॉजिकल है जिसमे व्यक्ति में शारीरक परिवर्तन और विकास को संदर्भित किया गया है |

कालूनिकार्मिक घटक अपरिवर्तनीय है जबकि जैविक घटक को विलम्बित किया जा सकता है अर्थात व्यक्ति की मर्त्यु तो निश्च्चित और अप्रवर्तनीय है लेकिन जैविक घटक में परवर्तन करके व्यक्ति को सवस्थ जीवन प्रदान करके उसकी उम्र को बढ़ाया जा सकता है |

उम्र क्या है ?

यह समय की वो अवधि है जिसके दौरान है जीवित रहते है, इसमें वो समय भी शामिल है जब हमारा स्वस्थ्य ख़राब रहता है |

रुग्णता !

किसी व्यक्ति के जीवन की वह अवधि जिसमे वह बीमार रहता है रुग्णता की अवधि कहलाती है, ह्रदय रोग, स्ट्रोक, मधुमेह एवं गठिया रोग इस तरह के रोग है जिनसे वयक्ति अपने इस काल में ग्रषित रहता है | हालाँकि आधुनिक चिकित्सा पढ़ती के कारण इन पर कुछ काबू किया जा रहा है लेकिन बुजुर्गो में रोगो का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है

Health Span/ स्वस्थ आयु

जीवन का वो समय जब व्यक्ति गंभीर बीमारियों से मुक्त होता है अर्थात पूर्णतः स्वस्थ जीवन यापन करता है उसकी स्वस्थ आयु होती है | उम्र बढ़ने के साथ व्यक्ति की जैविक सरंचना में धीरे धीरे बदलाव होता है, शरीर में होने वाले ये परिवर्तन विभिन्न कारको से प्रभावित होते है | चूँकि उम्र बढने के साथ शरीर की कोशिकाओं, अंगो व अन्य शारीरिक प्रणालियों के काम करने में हानि होती है उनकी क्षमता में कमी होती है | जिससे व्यक्ति धीरे धीरे मर्त्यु की और बढ़ता है | उम्र बढ़ने का कोई एक कारक नहीं है इसके विभिन्न कारक है जिनमे से कुछ परस्पर विरोधी भी हैं |

उम्र बढ़ने के सिद्धांत :-

उम्र बढ़ने के निम्न सिद्धांत हैं :-

  1. आनुवंशिक सिद्धांत |
  2. क्षति या त्रुटि सिद्धांत |
  3. दिलमान का न्यूरोएंडोक्रिने सिद्धांत |
  4. फ्री रेडिक्ल क्षति सिद्धांत |
  5. जीन म्युटेशन सिद्धांत |
  6. सेल डिवीज़न सिद्धांत |

जैविक उम्र बढ़ने वाले कारक (Factors that promote biological aging )

उम्र बढ़ना एक प्रक्रिया है और वृद्धावस्था को पूर्णतया रोकना पाना नामुमकिन है लेकिन उम्र बढ़ने के कारको को प्रभावित करके व्यक्ति अपनी उम्र में कुछ बढ़ोतरी कर सकता है | इस प्रकार वो फैक्टर्स जिनके कारण व्यक्ति की शारीरिक क्षमता धीरे धीरे कम हो जाती है उनको कम करने के लिए दवाओं की खोज करके, बढ़ती उम्र से संबधित बीमारियों को निर्धारित कर उनके रोकथाम के उपाय कर एवं व्यक्ति की जीवनशैली को उत्तम बनाकर मानव जीवनकाल का विस्तार किया जा सकता है |

एक शोध में शोधकर्ताओं ने पाया की किसी व्यक्ति द्वारा कम कैलोरी का सेवन या चयापचय करने से उसके जीवनकाल में वृद्धि की जा सकती है, शोधकर्ताओ द्वारा ये शोध चूहों एवं अन्य जानवरो पर किया गया और अभी ये पता लगाने का प्रयास किया जा रहा है की ये प्रभाव क्यों होता है | प्रकार व्यक्ति किस प्रकार उचित खान पान कर काम कैलोरी का सेवन करे इस पर विभिन्न शोध जारी हैं |

इसके अलावा फ्री रेडिकल्स की दर में कमी करके भी जीवनकाल में वृद्धि की जा सकती है | बढ़ती उम्र के साथ मानव के शरीर में मांस पेशियों, ऊतकों एवं कोशिकाओं को क्षति पहुँचती है इन क्षतिग्रस्त उत्तको एवं कोशिकाओं का प्रतिस्थापन करके भी जीवन काल में वृद्धि की जा सकती है |

आयुर्वेदा और साइंस ऑफ़ एजिंग

आयुर्वेदा में बढ़ती उम्र को जरा से परिभाषित किया गया है, इसके अनुसार जरा या बुढ़ापा कोई बीमारी नहीं है यह एक प्राकर्तिक घटना है | प्राकर्तिक विनाषों के सिद्धांत में महृषि चरक ने बताया है की व्यक्ति के जन्म लेने का एक प्रेरक कारण होता है, लेकिन बुढ़ापे की और जाने का कोई कारण नहीं है क्योंकि जन्म के बाद मृत्यु प्राकृतिक प्रवाह की एक स्थिति है |

अर्थात जन्म और मृत्यु शास्वत है | आयुर्वेद में शरीर की परिभाषा भी इसी आधार पर दी गई है |

शीर्यते इति शरीरम

अर्थात जिसका पल – पल क्षरण (कमी) होती हो वही शरीर कहलाता है |

जरा शब्द चार सस्थाओं को इंगित करता है |

  1. नित्यगा :- यह चेतना को जारी रखने का संकेत देता है |
  2. धारी :- यह उन कारको को दर्शाता है जो उम्र बढ़ने को रोकते हैं |
  3. जीवितम:- जीवित रखने की प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व करता है |
  4. अनुबंधा :- यह शरीर के प्रसारण को दर्शाता है |

जरा और वृद्धावस्था उन कारको से प्रभावित होती है जो शरीर (Physical ), इन्द्रियों, सत्व (Psychic Level ), अग्नि (Metabolism ) और बल / ओजस (Immunity ) को प्रभावित करते हैं | इसके अलावा cellular transformation, शरीरवृद्धिकरा भावास और गर्भ के दौरान शरीर के विकास भी वो कारण है जो व्यक्ति में वृद्धावस्था के समय के जल्दी या देर से आने को निश्चित करते हैं |

जरा या वृद्धावस्था को प्रभावित करने वाले मुख्य कारण :-

1 . काल परिणाम (समय एवं परिवर्तन):- यह सबसे महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली कारण है इसका तात्पर्य उन शारीरिक और मानसिक परिवर्तन से है जो जैसे जैसे व्यक्ति बूढ़ा होता है उसमे आते है | इस प्राकर्तिक परिवर्तन के साथ सामंजस्य नहीं बनाने से व्यक्ति विभिन्न रोगों से ग्रसित हो जाता है | काल एक व्यक्ति को गर्भाधान से मर्त्यु तक प्रभावित करता है और इस समय अवधि को आयुष कहा जाता है |

2 . प्रकर्ति :- यह व्यक्ति की जैविक (शारीरिक और मानसिक) सरंचना को परिभाषित करता है | हर व्यक्ति की प्रकर्ति विशिष्ट होती है, उसकी चयाअपचय की क्षमता, प्रतिरोधक क्षमता और शारीरिक और मानसिक क्षमता विशिष्ट एवं औरों से भिन्न होती है |

3 . दोष (वात, पित एवं कफ ):- व्यक्ति की दोष (biological energy system ) उसकी दीर्घायु को निश्चित करते हैं | वात, प्राणी की जीवन ऊर्जा से सम्बंधित है उसके जीवन कार्यों एवं जैविक गतिविधि की नियंत्रित करता है | पित, पाचन एवं चयाअपचय को प्रभावित करता है | कफ, उपचय को नियंत्रित करता है जो निर्माण एवं स्नेहन की ऊर्जा है | स्वास्थ्य एवं रोग शरीर में दोष के द्वारा ही नियंत्रित होते हैं | उचित आहार, व्यायाम और सामंजस्यपूर्ण जीवनशैली इन दोषो में संतुलन बनाते हैं और व्यक्ति दीर्घ काल तक बीमारियों से मुक्त रहता है |

4. आहार(Diet ) :- यह एक और महत्वपूर्ण कारक है जो उम्र बढ़ने को प्रभावित करता है | खराब जीवनशैली और दोषपूर्ण आहार व्यक्ति के दोषों में असंतुलन पैदा कर उसे रोगो से ग्रसित करते है जिससे उसका जीवन काल कम होता है | भोजन का गलत समय पर सेवन, शोर शराबे वाले वातावरण में भोजन करना, ज्यादा ठन्डे खाद्य पदार्थ, अधिक कैलोरी वाला खाना एवं अतयधिक परिष्क्रत भोजन करने से व्यक्ति के दोष प्रभावित होते है और वह ज्यादा बीमार पड़ता है |

5 . आचार/ दिनचर्या :- आयुर्वेद के अनुसार सभी प्राणियों का स्वास्थ्य एक आतंरिक घडी द्वारा संचालित होता है जो व्यक्ति को निर्देशित करती है की कोनसा समय उसके लिए किस काम के लिए उपयोगी है | इसमें प्रातः उठने का समय, स्नान का समय व्यायाम का समय, भोजन का समय, अध्ययन का समय और यात्रा का समय सभी सम्मिलित हैं | एक संतुलित और निरोगी जीवन के लिए उपयुक्त दिनचर्या का पालन करना बहुत जरुरी है |

6. जठराग्नि :- यह व्यक्ति द्वारा भोजन के पाचन और उसको आत्मसात करने को नियंत्रित करने के अलावा उसके जीवन काल और स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव डालती है | यदि किसी व्यक्ति की जठराग्नि कमजोर है तो उसके पाचन में कमी आती है जिससे भोजन की विषाक्तता में वृद्धि होती है | इस प्रकार जठराग्नि उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को प्रभावित करती है |

एक लम्बे और स्वस्थ जीवन के लिए आयुर्वेदिक उपाय :-

आधनिक चिकित्सा स्वस्थ रहने और दीर्घायु बनाने के लिए विभिन्न प्रकार की दवाओं पर निर्भर है इसके विपरीत आयुर्वेद में इसके लिए एक व्यापक जीवनशैली को अपनाने के ऊपर जोर दिया गया है, इसमें उचित दिनचर्या, सात्विक आहार, व्यायाम, मनोवैज्ञानिक स्थिति और दोषो में संतुलन बनाये रखना प्रमुख हैं |

आयुर्वेद के अनुसार हमारे व्यक्तित्व का निर्धारण इस बात से होता है कि हम कब, कहाँ, क्या, और कैसे भोजन करते हैं| जब सूर्य अपने चरम पर होता है तो पाचन मजबूत होता है इसलिए आयुर्वेद के अनुसार प्रातः और शाम को कम खाना चाहिए एवं दोपहर में ज्यादा |

भोजन के अलावा नींद भी व्यक्ति की दिनचर्या का एक अहम् भाग है | गलत समय पर सोना या काम और ज्यादा सोना व्यक्ति को प्रभावित करता है और इससे विभिन्न रोगो का खतरा रहता है | एक उत्तम दिनचर्या के लिए व्यक्ति को कम से कम 8 घंटे सोना चाहिए, और रात्रि को जल्दी सो कर सुबह जल्दी उठ जाना चाहिए| इस से व्यक्ति तनाव मुक्त रहता है |

नियमित एवं उचित दिनचर्या स्वस्थ जीवन के लिए बहुत उपयोगी है | समय पर खाना, व्यायाम करना, विश्राम करना, उचित भोजन करना, समय पर सोना और सूर्योदय से पहले उठना एक स्वस्थ जीवन के लिए बहुत जरुरी है |

योग, ध्यान और प्राणायाम :-

एक स्वस्थ एवं लम्बे जीवन काल के लिए योग एवं प्राणायाम बहुत जरुरी हैं | विभिन्न व्यक्तियों में किये गए अध्ययन में ये पाया गया है कि रोज योगाभ्यास और प्राणायाम करने से व्यक्ति की चयापचय की शक्ति बढ़ती है एवं उसके दोषो में संतुलन बना रहता है जिस से वह रोग मुक्त रहता है तथा बढ़ती उम्र के कारण होने वाले परिवर्तनों एवं क्षति से खुद को बचा पाता है |

निष्कर्ष :-

बढ़ती उम्र के प्रभावों और बीमारियों से बचने के लिए विभिन्न चिकित्सा प्रणालियों में अलग अलग तरीके अपनाये और खोजे जाते है, जहां एक और आधुनिक चिकित्सा में विभिन्न दवाओं की खोज पर जोर दिया जाता है, इसके विपरीत आयुर्वेदा में व्यक्ति की जीवन शैली को उत्तम बनाने पर बल दिया जाता है | आयुर्वेद में बताये गए सिद्धांत बहुत ही व्यावहारिक और उत्तम हैं जिनको अपना कर हम एक निरोगी और दीर्घायु जीवन यापन कर सकते हैं |

सौजन्य से :- एल्स वेयर

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