जात्यादि घृत आयुर्वेदिक घृत कल्पना का एक औषधीय घी है | आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में घी को जड़ी – बूटियों से सिद्ध स्नेहपाक (पकाकर) करके रोगों के उपचार के लिए प्रयोग किये जाते है | आयुर्वेद अनुसार घी खुद एक औषधि है | अगर इसमें अन्य जड़ी – बूटियों को मिलाकर स्नेह्पाक करके उपयोग में लिया जाए तो बहुत से कष्टदाई रोगों से मुक्ति हो सकती है |
यह घी बाह्य उपयोग के लिए ही प्रयोग किया जाता है | आभ्यंतर प्रयोग वर्जित है | जात्यादि घृत घाव, फोड़े – फुंसी, जलने के घाव आदि त्वचा विकारों में लगाया जाता है | यह घाव को जल्द भरने का कार्य करता है | बाजार में पतंजलि जात्यादि घृत, बैद्यनाथ, धूतपापेश्वर, उंझा आयुर्वेद आदि कंपनियों के उपलब्ध मिल जाते है |
जात्यादि घृत का उपयोग या फायदे / Health Benefits of Jatyadi Ghrita in Hindi
- मर्माश्रित व्रण (शरीर के महत्वपूर्ण जगहों पर होने वाले घाव)
- क्लेदी व्रण (मवाद युक्त घाव)
- गंभीर घाव
- दर्द युक्त घाव
- सूक्ष्म नाड़ीव्रण
- इसका बाह्य प्रयोग ही किया जाता है |
- सूक्ष्म कीटों के द्वारा हुए घाव को ठीक करने में फायदेमंद है |
- जात्यादि घी को उपयोग में लाने से पहले गरम करके हिला लेना चाहिए |
- यह घाव को जल्द भरने में फायदेमंद आयुर्वेदिक औषधि है |
- बवासीर में भी इसका उपयोग फायदा देता है |
- घाव में होने वाले दर्द में आराम मिलता है |
- घाव की सुजन को दूर करता है |
- जीवाणुओं को नष्ट करने में सक्षम आयुर्वेदिक घृत है |
- त्वचा पर होने वाले फोड़े – फुंसी, घाव एवं जलने के स्थान को ठीक करने में फायदेमंद है
घटक द्रव्य / Ingredients
इस आयुर्वेदिक घृत के निर्माण में 13 प्रकार की जड़ी – बूटियों का प्रयोग किया जाता है | यहाँ टेबल के माध्यम से इसके घटक द्रव्य हमने बताएं है |
क्रमांक | जड़ी – बूटी का नाम | मात्रा |
01 | जातीपत्र | 14.76 ग्राम |
02 | निम्ब पत्र | 14.76 ग्राम |
03 | पटोल पत्र | 14.76 ग्राम |
04 | कटुक | 14.76 ग्राम |
05 | दारूहरिद्रा | 14.76 ग्राम |
06 | हरिद्रा | 14.76 ग्राम |
07 | सारिवा | 14.76 ग्राम |
08 | मंजिष्ठ | 14.76 ग्राम |
09 | उशीर | 14.76 ग्राम |
10 | सिक्थ | 14.76 ग्राम |
11 | तुत्थ | 14.76 ग्राम |
12 | मुलेठी | 14.76 ग्राम |
13 | करंज | 14.76 ग्राम |
14 | गाय का घी | 768 ग्राम |
15 | जल | 3.072 लीटर |
जात्यादि घृत बनाने की विधि
सबसे पहले सिक्थ और तुत्थ द्रव्यों को छोड़कर बाकी सभी 11 जड़ी – बूटियों को कूटपीसकर चूर्ण बना लें | अब इस चूर्ण में पानी मिलाकर कल्क तैयार करलें | कल्क से तात्पर्य चूर्ण में इतना पानी मिलावे की वह तरल लेप जैसा बन जावे तो वह कल्क कहलाता है |
अब एक कडाही में गाय का घी लें | इस कडाही को अग्नि पर चढ़ा कर गाय के घी में इस तैयार किये हुए कलक को डालकर पाक करें | अब निर्देशित मात्रा में बताया गया जल मिलाकर धीमी आंच पर पाक करें |
जब घृत सिद्ध हो जावे अर्थात जब घी से पूरी तरह से जल उड़ जावे तब बची हुई जड़ी – बूटियां तुत्थ और सिक्थ मिलाकर फिर से थोडा पाक करें | तुत्थ को थोड़े जल में घोलकर फिर इसमें डालें | अच्छी तरह सिद्ध होने के पश्चात कड़ाही निचे उतार कर घी को ठंडा करलें और कांच के बरतन में एयरटाइट बंद करके रखें |
इस प्रकार से तैयार घी जात्यादि घी कहलाता है |
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सेवन विधि एवं सावधानियां
- जात्यादि घृत को हमेशां थोडा गरम करके एवं हिलाकर प्रयोग में लाना चाहिए |
- ध्यान दें यह सिर्फ बाह्य प्रयोग की आयुर्वेदिक दवा है | अर्थात इसका उपयोग खाने के लिए नही करना चाहिए |
- घाव पर लगाने से पहले अच्छी तरह घाव को साफ करलें | इस पर लगे हुए मैल और मिट्ठी आदि को हटा देना चाहिए |
- घाव या फोड़े – फुंसी पर लगाते समय एक पतली सी परत बनाकर लगालें और फिर ऊपर से कॉटन से ढँक कर साफ वस्त्र से बांध लें |
- आन्तरिक प्रयोग वर्जित है |
धन्यवाद |