शालपर्णी का वानस्पतिक परिचय – जानें औषधीय गुण एवं फायदे

शालपर्णी / Desmodium Gangeticum

शाल के समान पत्र (पते) होने के कारण इसे शालपर्णी नाम से जाना जाता है | आयुर्वेदिक ग्रन्थ चरक संहिता में शालपर्णी का वर्णन राजयक्ष्मा, क्षतक्षीण, रसायन पाद में मिलता है | आचार्य चरकानुसार यह द्रव्य अंगमर्द (अंगो की पीड़ा), सुजन, वात रोग एवं प्रमेह में उपयोगी बताया गया है | यह त्रिदोष शामक गुणों से युक्त जड़ी – बूटी है जिसका प्रयोग – कमर दर्द, जुकाम, तृष्णा, अतिसार एवं उल्टी आदि की समस्या में किया जाता है | दशमूल के द्रव्यों में उपस्थित लघुपंचमूल की जड़ी – बूटियों में शालपर्णी का इस्तेमाल किया जाता है अर्थात यह लघुपंचमूल औषध द्रव्यों में गिनी जाती है |

शालपर्णी

वानस्पतिक परिचय – समस्त भारतवर्ष में तर क्षेत्रों में इसके क्षुप देखने को मिलते है | शालपर्णी का क्षुप 2 से 4 फुट ऊँचा होता है | इसकी शाखाएं निचे की तरफ झुकी हुई एवं विस्तृत रूप से फैली हुई होती है | क्षुप का कांड किंचित कोणयुक्त होता है | पते शाल के समान आगे से भालाकर, आयताकार एवं लटवाकार होते है | पतों की लम्बाई 3 से 6 इंच है |

पौधे पर गुलाबी या जमुनी रंग के पुष्प 6 – 12 इंच लम्बी, पतली मंजरियों में लगते है | शालपर्णी की फली आधे से पौन इंच लम्बी होती है | यह आगे से चपटी एवं टेढ़ी होती है जिसपर 6 से 8 संधियाँ होती है | फली रोमयुक्त होने कारण कपड़ों में जल्दी चिपकती है |

शालपर्णी के औषधीय गुण 

शालपर्णी गुरुश्छर्दीज्वरश्वासातिसारजित |

शोषदोषत्रयहरी बृहणयुक्ता रसायनी |

तिक्ता विषहरी स्वादु: क्षतकासकृमिप्रणत ||

इसका रस मधुर एवं तिक्त होता है एवं गुणों में यह गुरु (भारी) और स्निग्ध होती है | पचने के उपरांत इसका विपाक मधुर और तासीर में उष्ण वीर्य औषधि है | अपने इन्ही औषधीय गुणों के कारण इसे त्रिदोष शामक, बृहन, रसायन और कृमिघ्न माना जाता है | आयुर्वेद चिकित्सा में इसका प्रयोग शोथ, ज्वर, वातरोग, वमन, श्वास, अतिसार, विष एवं क्षयकास (टीबी) आदि में किया जाता है |

आयुर्वेद में इसके पंचांग एवं जड़ के चूर्ण का इस्तेमाल किया जाता है | चूर्ण का सेवन 1 से 2 ग्राम की मात्रा में चिकित्सक के परामर्शानुसार प्रयोग करना चाहिए |

शालपर्णी के उपयोग एवं फायदे 

  1. वातविकार शोथ (सुजन) – वातशामक गुणों के कारण यह सभी प्रकार के वातविकारों में लाभदायक सिद्ध होती है |
  2. ज्वर – शालपर्णी मधुर एवं शीत होनेके कारण पित का शमन करती है | तिक्त रस से दोषों का पाचन एवं मधुरता से धातु को बल देने का कर्म होता है | अत: सर्वज्वर में यह उपयोगी द्रव्य है |  सन्निपातज ज्वर में दोषों के पाच्नार्थ एवं धातुबल के लिए यह विशेषत: उपयोगी है |
  3. अतिसार – तिक्तरस एवं उष्ण वीर्य से दीपन-पाचन कर्म, गुरु एवं स्निग्ध गुण से अनुलोमन होकर कोष्ठगत वात में उपयोगी है | उष्ण वीर्य से अतिसार में लाभदयक है |
  4. कास एवं श्वास – मधुर और स्निग्ध होने से काफ नि:सारक कर्म होकर कास – श्वास में उपयोगी साबित होती है | मधुर रस से धातु की वृद्धि करके बृहनकर्म तथा उर:क्षत में व्रणरोपण कर्म होता है | टीबी जैसे रोग में इसका प्रयोग बल एवं मांस की व्रद्धी के लिए कफ को नष्ट करने के लिए किया जाता है |
  5. विषघ्न – मधुर रस से वात-पित का शमन एवं तिक्त रस से दोषों का पाचन करके विषघ्न कर्म होता है |
  6. सूतिका रोग – त्रिदोषघन द्रव्य है | अपने वातशामक गुणों के कारण सूतिकारोगों में लाभदायक होती है |
  7. इसकी मूल (जड़) का प्रयोग अतिसार में भोजन एवं पानार्थ किया जाता है |
  8. शालपर्णी की जड़ के साथ त्रिकटु क्षीरपाक का प्रयोग अतिसार में शूल में करने से लाभ मिलता है |
  9. गर्भवती में अगर मूढ़गर्भ का भय हो तो गर्भवती की नाभि, बस्ती एवं भगप्रदेश पर इसकी मूल का लेप करने से लाभ मिलता है |

धन्यवाद | 

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