द्रव्य गुण की परिभाषा एवं श्लोक (Dravya Guna Definition)

द्रव्य गुण की परिभाषा: द्रव्य को औषधि और आहार से समझा जाता है । सभी औषधीय जड़ी-बूटियां और आहार द्रव्य कहलाते हैं । इन्ही द्रव्यों के गुण, वीर्य, विपाक, कर्म आदि की जानकारी जिस शास्त्र के द्वारा प्राप्त होती है, वह द्रव्य गुण विज्ञानं कहलाता है ।

द्रव्य को औषध के गुण और कर्म का आश्रय माना जाता है । अत: द्रव्य सर्वप्रधान होने से इसका ही वर्णन सबसे पहले किया जाता है । अर्थात रस, वीर्य, विपाक, प्रभाव, गुण एवं काम का आश्रय पदार्थ द्रव्य होता है । इन्ही पञ्चभौतिक स्थूल द्रव्यों का ज्ञान द्रव्य गुण विज्ञानं में किया गया है ।

द्रव्य गुण की परिभाषा

आज के इस लेख में हम आपको द्रव्य गुण की परिभाषा इसके श्लोक सहित आपको बताने वाले हैं ।

द्रव्य गुण की परिभाषा एवं प्रयोजन समझिए

आयुर्वेद में द्रव्यगुण विज्ञानं को प्रमुख विषय के रूप में माना जाता है । इसे आयुर्वेद का “मेटेरिया मेडिका” समझा जाता है । क्योंकि आयुर्वेद में काम आने वाले सभी द्रव्यों के गुण, वीर्य, विपाक, रोगप्रभाव एवं कर्म का वर्णन इस शास्त्र में मिलता है । अत: रोगप्रतिकार, पौषण, एवं स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए औषधि एवं आहार के रूप में प्रयोग होने वाले सभी द्रव्यों के गुण, पहचान, कर्म और प्रयोग का जिस शास्त्र में वर्णन किया गया हो वह द्रव्य गुण विज्ञानं कहलाता है ।

प्रयोजन: द्रव्यगुण विज्ञानं को वैज्ञानिक अध्यन की सुविधा हेतु अनेक विभागों में विभक्त किया गया है जो निम्न प्रकार से हैं –

  1. Pharmacognosy (नामरूप विज्ञानं)
  2. Pharmacy (संयोग विज्ञानं)
  3. Administration of Drug (योग विज्ञानं)
  4. Pharmacology & Pharmacodynamics (गुण कर्म विज्ञानं)
  5. Therapeutics (प्रयोग विज्ञानं )

द्रव्य गुण से सम्बंधित श्लोक

द्रव्याणा गुणकर्माणि प्रयोगा विविधास्थता ।
सर्वशो यत्र वर्ण्यन्ते शास्त्रं द्रव्यगुणं हि तत ।।

आ. प्रि.स

अर्थात द्रव्य (औषधि और आहार) के गुण – कर्म और विविध प्रयोग का जहाँ पर वर्णन किया है, उस शास्त्र को द्रव्यगुण शास्त्र या द्रव्यगुण विज्ञानं कहते हैं ।

द्रव्य गुण विज्ञानं पदार्थ

द्रव्यगुण शास्त्र के 7 पदार्थ हैं जो इस प्रकार हैं –

1. द्रव्य (Drug)

‘यत्राश्रिता: कर्मगुणा: कारणं समवायी यत ।
तद द्र्व्यम ………………………………………….. । । (च. सू. १)

अर्थात: जिसमे गुण और कर्म समवाय संबंध से आश्रित हैं उसे द्रव्य कहते हैं । रसादि गुण और वमनादि कर्म का आश्रयभुत जो पञ्चभौतिक विकार है वह द्रव्य कहलाता है । जैसे – हरीतकी, आमलकी, विभितकी

2. गुण (Property)

समवायी तु निश्चेष्टकारणं गुण: । (च. सू. १)

अर्थात: जो द्रव्य में समवाय संबंध से रहते हैं, निश्चेष्ट एवं निष्क्रिय होते हैं उन्हें गुण कहते हैं । जैसे शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष आदि ।

3. रस (Taste)

‘रस्यते आश्वाध्यते इति रस:’ ।

अर्थात: द्रव्य में जो आस्वाद होता है उसे रस कहते हैं । जैसे मधुर, तिक्त, कटु, कषाय और अम्ल आदि । इन्हें रस के नाम से जाना जाता है ।

4. विपाक (Taste after digest)

‘विशष्ट: पाक: विपाक: ।

अर्थात: अव्स्थापाक से द्रव्यों का जो विशिष्ट पाक होता है उसे विपाक कहते हैं ।

5. वीर्य (Potency)

‘वीर्य तू क्रियते येन या क्रिया’ ।

अर्थात: जिसके द्वारा क्रिया होती है उसे वीर्य कहते हैं । कर्मण्य – गुणों को वीर्य कहते हैं । जैसे स्निग्ध-रुक्ष, शीत-उष्ण, गुरु-लघु, और मंद-तीक्ष्ण आदि ।

6. प्रभाव (Specific action Property)

‘रसादिसाम्ये यत कर्म विशिष्ट तत प्रभावजम’ ।

अर्थात: रस, वीर्य, विपाक, समान होते हुए भी द्रव्य में जो विशेषता देखि जाती है वह प्रभाव है । जैसे अर्जुन का हृदय कर्म, दंती का रेचन कर्म, शंखपुष्पि का मध्य कर्म ।

7. कर्म (action)

द्रव्य रसादि गुणों के द्वारा शरीर में जो परिवर्तन उत्पन्न करते है उसे कर्म कहते हैं ।

‘ संयोगे च विभागे च कारणं द्रव्यमाश्रीतम ।
कर्तव्यस्य क्रिया कर्म कर्म नान्यदपेक्षते । । ‘

जो संयोग और विभाग में कारण हो, द्रव्य के आश्रित हैं, क्रियाकर्म करनेवाला है और किसी की अपेक्षा नहीं रखता उसे कर्म कहते हैं । जैसे वमन, विरेचन, बृहन एवं लंघन कर्म आदि ।

धन्यवाद ।

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