आज हम इस लेख में आयुर्वेद की एक प्रसिद्ध औषधि पिप्पली के बारे में बताएंगे। आज की युवा पीढ़ी तो पिप्पली के औषधीय गुणों से अनजान है परंतु हमारे प्राचीन पीढ़ी या यूं कहें कि हमारी दादी – नानी इस पिप्पली के औषधीय गुणों को अच्छी तरह से जानती थी कि
यह औषधि आरोग्य का पालन करती है अर्थात स्वास्थ्य को स्वस्थ बनाये रखती है। कई बार हमने देखा और सुना होगा कि हमारी दादी-नानी नानी सूर्य की धूप आने के बाद बाहर नहीं निकलती थी, बहुत ज्यादा जरूरत पड़ने पर अपने आपको कपड़े से ढक कर निकलती थी और शोर-शराबे से भी दूर रहती थी क्योंकि वह इस समय पिप्पली का सेवन कर रही होती थी और आयुर्वेद के अनुसार भी कहा जाता है कि जो नर और नारी पिप्पली का सेवन करें वह सूर्य की धूप से बचें और शोर-शराबे से भी दूर रहे तथा मन को शांत रखें।
परंतु आजकल समय के अभाव के कारण इस नियम का पालन करना संभव नहीं है। इस कारण हमारे आचार्यों ने पिप्पली के अनेक योग भी बताए हैं जिन्हें हम बिना नियम का पालन करें भी उपयोग में ले सकते हैं और आरोग्य सुख का आनंद ले सकते हैं। तो चलिए जानते हैं पिप्पली के बारे में
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पिप्पली का परिचय | Introduction of Pepper longum
चरक और सुश्रुत दोनों आचार्यों ने विरेचन (अतिसार )कराने वाले द्रव्यों में पिप्पली की गणना की है। चरक के अनुसार पिप्पली एवं लवण का अधिक मात्रा में चिरकाल (लम्बे समय तक ) तक सेवन नहीं करना चाहिए। आचार्य भावमिश्र ने शुष्क पीपली को पित्त प्रकोप अर्थात पित बढ़ाने वाली कहा है, जबकि चरक ने इसे पित्त कुपित न करने वाली और साथ ही में वात और कफ को हरने वाली कहां है। पिप्पली न उष्ण और न शीत है, अपितु अनुष्णाशीत (आधी उष्ण और आधी शीत) हैं।
वानस्पतिक वर्णन और उत्पत्ति स्थान
पीपली गर्म प्रदेशों में पूर्व में नेपाल से आसाम एवं बंगाल तक ,पश्चिम की ओर मुंबई तक, दक्षिण की ओर द्रावणकोर, सीलोन, मलाक्का, फिलीपाइन द्वीपों में पाई जाती है। इसकी विशिष्ट गन्ध थोड़ी ही दूर पर फैलने वाली होती है।
- मूल- कुछ मोटी एवं खड़ी सी होती है।
- शाखाएं – भूमि पर फैलती है।
- पते – गोलाकार, पान के पत्ते की आकृति के, कोमल एवं पांच शिरायुक्त होते हैं।
- फूल- एकलिंगी होते हैं।
- फल- पकने पर लाल एवं सूखे होने पर काले रंग के होते हैं। फल अत्यंत छोटे होते हैं।
पीपली के अन्य नाम | Other Name of Pippali Herb
पीपली को इसके गुणों के आधार पर अनेक नामों से जाना जाता हैं। जैसे –
- पिप्पली – इसका सेवन करने से आरोग्य प्राप्त होता है अर्थात स्वास्थ्य को बनाए रखती है।
- मागधी- मगध देश में उत्पन्न होती है।
- कणा- इसमें अनेक कण होते हैं।
- कृष्णा – इसका रंग काला होता है।
- चपला- इसका गुण उष्ण होता है।
- वैदेही – विदेह प्रदेश में उत्पन्न होती है।
- उपकुल्या- पानी की छोटी नहरों के आसपास उत्पन्न होती है।
पिपली के औषधीय गुण एवं कर्म | Pippali ke Aushdhiye Gun
- रस- कटु। इसका रस खाने में कटु अर्थात कालीमिर्च की तरह तीखा होता है।
- गुण- लघु, स्निग्ध, तीक्ष्ण। पचने में यह हल्की, चिकनी और तीक्ष्ण होती है।
- विपाक – मधुर। पचने के बाद मधुर रस उत्पन्न होता है।
- वीर्य – उष्ण (अनुष्ण)।इसका वीर्य उष्ण अर्थात हमारे शरीर में ऊष्मा उत्पन्न करती है।
पिपली के औषधीय कर्म | Pippali Aushdhiye Karma
- दोषकर्म- कफ-वात शामक
- अन्यकर्म- दीपन, पाचन, रसायन, रेचक।
- रोगहर- श्वास, कास, उदर रोग, ज्वर, कुष्ठ, प्रमेह, गुल्म, अर्श, प्लीहाशूल, आमवातनाशक ।
- आर्द्रपिप्पली-कफकर, स्निग्ध, शीत, मधुर, गुरु, पित्त शामक।
- शुष्क पिप्पली – पित्तकर ।
- मधुयुक्त पिप्पली – मेद, कफ, अस्थमा, खांसी, बुखार नाशक, मेध्य, अग्निदीपक।
- गुड़युक्त पिप्पली – पुरानी बुखार, खांसी, अजीर्ण, अरुचि, अस्थमा, हृदय रोग, पांडू, कर्मी रोग और दीपन।
पिप्पली के उपयोग | Pippali Uses
- दीपन पाचन में: पिप्पली कटु रस के कारण दीपन और पाचन, स्निग्ध एवं उष्ण गुण के कारण वात का अनुलोमन और दर्द नाशक, कटु-तीक्ष्ण-उष्ण गुण से कीड़ों का नाश करती है।
- रसायन: पीपली रस आदि धातु की वृद्धि करती हैं। कटु रस वाले द्रव्य अवृष्य(बल न बढ़ाने वाले होते है ) होते हैं किन्तु पीपली वृष्य( बल बढ़ाने वाले होते है ) और रसायन है। यह कटु रस और उष्ण वीर्य से रस आदि धातुओं को बढ़ाती है और उनका पोषण करती है। विशेषत इससे रस, रक्त एवं शुक्र का वर्धन अर्थात बढ़ते हैं और स्तन और रज का पोषण होता है। पिप्पली के मधुर विपाक से धातुओं की वृद्धि होती है।
- मलकर्म: पीपली स्निग्धता से मल का क्लेदन करती है, अतएवं मलों का उत्सर्जन सुखपूर्वक होता है। पीपली मधुर विपाक से तर होती है।
- खांसी और अस्थमा: पीपली अपने स्निग्ध गुण एवं उष्ण वीर्य से कंठ में स्थित कफ का विलयन और क्लेदन करती है। कंठ में स्थित कफ को दूर करके कंठ को बल प्रदान करती है। विशेषत ःवातज एवं क्षयज खांसी में पीपली का प्रयोग करते हैं। वात युक्त खांसी अर्थात जिसमें वायु ज्यादा हो उस खांसी में पीपली को पुराने गुड़ और तेल के साथ अथवा पीपली को घी में भूनकर, सेंधा नमक के साथ और कफ युक्त खांसी में जिसमें गाढ़ा कफ हो पीपली चूर्ण को शहद के साथ, क्षयज खांसी में द्राक्षा एवं पीपली को मधु, घृत की के साथ लेह के रूप में सेवन करते हैं।
- टीबी रोग में: दीपन पाचन कर्म से पीपली विषम अग्नि को सम अवस्था में लाकर धातु बल का वर्धन करती हैं। पिप्पली – सिद्ध घी से स्रोतों का शोधन होता है। स्रोतों का शोधन होने से रस आदि धातुओं का पोषण होता है जिससे टीबी दूर होती है। इस प्रकार पीपली का प्रयोग टीबी रोग में भी बहुत लाभदायक होता है।
- बुखार में पीपली का प्रयोग: रस आदि धातु की वृद्धि होने के कारण पीपली विशेषकर वात कफ युक्त बुखार में हितकर होती है। पीपली क्वाथ वातयुक्त बुखार को दूर करता है। कटु और उष्ण होने से पित्त युक्त बुखार में पीपली को श्रेष्ठ नहीं माना गया है। पुरानी बुखार में पीपली युक्त घृत या पीपली क्वाथ सिद्ध क्षीर का प्रयोग करते हैं जिससे बुखार, विषम अग्नि, अरुचि, खांसी, अस्थमा और दर्द शीघ्र नष्ट हो जाते हैं।
- उदर रोग/प्लीहा रोग में पीपली का प्रयोग: पीपली अग्नि दीपन कर और कब्ज का नाश करके रस आदि दोषों का पाचन कर रस आदि धातुओं को बल प्रदान करके उदर रोग विशेषत ःप्लीहा रोग में सर्वश्रेष्ठ द्रव्य है।
- शोथ और पांडु रोग में: पीपली रक्त आदि धातुओं और अग्नि का वर्धन करती हैं। रक्त की वृद्धि होने के कारण पांडु रोग नष्ट हो जाता है। विशेषत वातज, वात कफज, शोथ और पांडु रोगों में तथा रक्तदुष्टिजन्य विकारों में पिप्पली का प्रयोग किया जाता है।
धन्यवाद |