आयुर्वेद Ayurveda : आयुर्वेद की परिभाषा , आयु के प्रकार, अवतरण और आयुर्वेद के अंग

आयुर्वेद – What is Aayurveda 

आयुर्वेद की व्यख्या बहुत से  विचारको के  द्वारा अलग – अलग की गई है | कुछ विचारको ने चरक, सुश्रुत और वाग्भट्ट की संहिताओ में उल्लेखित अंश को ही आयुर्वेद कहा है एवं वही दुसरे विचारको की राय में पुरातन संग्रह ग्रंथो में वर्णित रस योगो की चिकित्सा ही आयुर्वेद है | आज से हजारो साल पहले भी आयुर्वेद क्या है , इस विषय पर मतभेद रहे है | चारो वेदों में भी आयुर्वेद को अलग से संज्ञा न देते हुए इसे अथर्वेद का उपवेद माना है | जबकि अथर्वेद में आयुर्वेद के अधिकतर चिकित्सा के सिद्धांत वर्णित है | अत: अथर्वेद ही आयुर्वेद है यह कहने में कोई परेशानी नहीं है |

आयुर्वेद की परिभाषा , प्रकार , अवतरण और आयुर्वेद के अंग

आयुर्वेद दो शब्दों से मिलकर बना है – आयु + वेद | जिस शास्त्र में आयु का ज्ञान होता हो वही आयुर्वेद  है
अर्थात आयु का ज्ञान, शरीर, इन्द्रिय, सत्व और आत्मा का ज्ञान आयु है और जिस शास्त्र में इसका वर्णन मिलता है वही आयुर्वेद है | अगर बात करे आधुनिक विज्ञानं अनुसार तो आयु का अभिप्राय है जीवन ( Life ) और वेद का अर्थ है विज्ञानं (Science) या ज्ञान (knowledge) अर्थात दुसरे शब्दों में इसे Life of  Science भी कह सकते है |

शारीर और आत्मा का संयोग ही जीवन है और जितने समय तक यह जीवन बना रहता है उसी का नाम आयु है | इस आयु के लिए जितने हम हितकर आहार और विहार को अपनाना जानते है अर्थात हमारी आयु को बनाये रखने के लिए क्या हितकर है और किन अहितकर अर्थात बुरी आदतों को छोड़ कर स्वस्थ रह सकते है  | एसा ज्ञान जिस शास्त्र के द्वारा हमे प्राप्त होता है – वही आयुर्वेद है |

आयुर्वेद अनुसार आयु के प्रकार (Types of age according Ayurveda ) 

आयुर्वेद के अनुसार आयु के चार प्रकार है

1. सुखायु – जो व्यक्ति शारीरिक और मानसिक व्याधियो से पीड़ित नहीं है एवं अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए हितकारी आहार-विहार को अपनाता है और जिसका शरीर बल,वीर्य,यश,पौरुष एवं पराक्रम से युक्त है उसकी आयु सुखायु कहलाती है |

2. दुखायु – सुखायु के विपरीत जिसकी वृति है वह दुखायु जीवन जीता है अर्थात जो व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारो में से किसी एक को भी प्राप्त करने में कठिनाई का  अनुभव करने वाली आयु दुखायु कहलाती है |

3. हितायु – हितायु भी सुखायु की तरह ही है | जो व्यक्ति सुखायु से संपन्न रहते हुए अपने रोग , द्वेष, इर्ष्या , मद और मान के वेगो पर नियंत्रण रखता है  उसकी आयु हितायु है |

4. अहितायु – हितायु के विपरीत स्थिति अहितायु है | अर्थात जो अहितकर और रोगोत्पादक आहार-विहार का सेवन करते हुए जीवन यापन करता है उसकी आयु अहितायु है |

आयुर्वेद का इतिहास /  आयुर्वेद संहिताकाल 

 चरक ने आयुर्वेद को शास्वत कहा है क्योकि जब से श्रष्टि का निर्माण हुआ अर्थात जीवन का प्रारम्भ हुआ और जिव को ज्ञान हुआ तब से ही आयुर्वेद का भी निर्माण हुआ | चरक के अनुसार श्रृष्टि की उत्पति के पूर्व ही स्वास्थ्य के सरंक्षण और रोग के उन्मूलन के लिए यह ज्ञान  विद्यमान था बस उत्पन्न होने वाले को इसे खोजना पड़ता था | सृष्टी के निर्माता ब्रह्मा से यह ज्ञान पृथ्वी पर आया |  ब्रह्मा ने आयुर्वेद के ज्ञान को स्मरण करके दक्ष प्रजापति को दियाऔर दक्ष प्रजापति प्रजापति ने इस ज्ञान को अश्विनी कुमारो को दिया जिन्होंने सूक्ष्म रूप में प्राप्त ब्रह्म द्वारा स्मृत और दक्ष प्रजापति द्वारा उपदिष्ट आयुर्वेद को अनेक परीक्षणों एवं अनुसन्धानो से वृहद किया | इन्होने यह ज्ञान इंद्र को दिया फिर इंद्र से आत्रेय, धन्वंतरी , कश्यप आदि ऋषियों को प्राप्त हुआ |
आयुर्वेद की परिभाषा , आयु के प्रकार , अवतरण और आयुर्वेद के अंग

ब्रह्मा द्वारा दिया गया आयुर्वेद का ज्ञान एक के बाद एक होते हुए पृथ्वी तक पंहुचा और वृहद रूप में बढ़ता गया | आयुर्वेद के संहिताकाल में तीन प्रमुख सम्प्रदाय है |

1. आत्रेय सम्प्रदाय


2. धान्य्वान्तर सम्प्रदाय


3. भास्कर संप्रदाय

आत्रेय सम्प्रदाय – चरक संहिता में वर्णित आयुर्वेद अवतरण को वर्तमान समय में आत्रेय संप्रदाय नाम से जाना जाता है | चरक संहिता में आयुर्वेद अवतरण का विस्तृत वर्णन मिलता है | चरक संहिता अनुसार जब पृथ्वी पर रोग अधिक हो गए तब सभी ऋषियों ने इक्कठा होकर हिमालय की और रुख किया , उन्होंने पृथ्वी के प्राणियों पर दया भाव से अभिप्रेरित होकर हिमालय पर इक्कठे होने का निर्णय लिया | वंहा पर सर्व सम्मति से उन्होंने भगवन इंद्र से ज्ञान प्राप्त करने के लिए भारद्वाज को नियुक्त किया | भारद्वाज ने इंद्र से अविकल त्रिसुत्रात्मक ज्ञान प्राप्त कर वही ज्ञान ऋषियों को दिया |

ज्ञान प्राप्त करने वाले ऋषियों में पुनर्वसु  आत्रेय भी थे जो भारद्वाज के शिष्य थे | पुनर्वसु आत्रेय ने इस सूत्र रुपें ज्ञान को व्यवस्थित रूप में वर्णित किया और इसे गति प्रदान की | इन्होने भारद्वाज से प्राप्त सम्पुरण उपदेश को विभक्त और कर्मबद्ध किया | पुनर्वसु आत्रेय ने आगे यह ज्ञान अपने शिष्य अग्निवेश, भेड़ और जतुकर्ण को दिया |

आत्रेय नाम से आयुर्वेद में तीन ऋषि अधिक प्रसिद्ध हुए –

1. कृष्णात्रेय     2. भिक्षुरात्रेय    3. पुनर्वसु आत्रेय

कृष्णात्रेय – बोधायन ऋषि ने अनेक आत्रेय उल्लेखित किये है जैसे – कृष्णात्रेय , श्यामात्रेय आदि | भेल संहिता में भी कृष्णात्रेय  नाम का  उल्लेख मिलता है | महाभारत में कृष्णात्रेय का  एक चिकित्सक के रूप में उल्लेख मिलता है | अत: अनेक जगह उल्लेख मिलने के कारन यह दुविधा होती है की कृष्णात्रेय और पुनर्वसु आत्रेय एक थे या भिन्न | इस विचार पर अभी तक मतभेद है कई आयुर्वेदाचार्य इन्हें अलग मानते है और कई विद्वान् इन्हें एक ही व्यक्ति मानते है |

भिक्षुरात्रेय – भिक्षुरात्रेय का उल्लेख चरक संहिता में एक स्थान पर आता है और इनके साथ पुनर्वसु आत्रेय का नाम भी आता है | वस्तुत: ये बोद्ध भिक्षु थे |

पुनर्वसु आत्रेय – ये अभी के पुत्र थे , अभी इन्द्र से ज्ञान प्राप्त करने वाले ऋषियों में थे | इन्होने अपने पुत्र को ऋषि भारद्वाज से आयुर्वेद के विस्तृत अध्यन के लिए भेजा | अत: पुनर्वसु आत्रेय ऋषि भारद्वाज के शिष्य थे | इनका जन्म पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ था इसलिए इनका नाम पुनर्वसु आत्रेय पड़ा |

धान्य्वान्तर सम्प्रदाय – इस संप्रदाय का उपलब्ध ग्रन्थ सुश्रुत संहिता है | सुश्रुत संहिता में उल्लेखित आयुर्वेद अवतरण क्रम में ब्रह्मा से लेकर इंद्र तक वही परम्परा है जो आत्रेय संप्रदाय में उल्लेखित है | इंद्र से यह ज्ञान धन्वन्तरी ने प्राप्त किया तथा उन्होंने आगे अपने शिष्यों सुश्रुत , औषधेनव ,वैतरण , पौष्कलावत, करवीर्य और गोपुरक्षित को प्रदान किया 
धन्वन्तरी ने शल्य शास्त्र का विश्लेष्ण किया और अपने शिष्यों को अनुसंध्नात्मक ज्ञान दिया तथा अन्य अंगो का भी ज्ञान इन्हें पूरण रूप से दिया | इन सभी शिष्यों ने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार पृथक-पृथक ग्रंथो की रचना की हो की इन्ही के नाम से प्रचलित हुई | वर्तमान समय में सुश्रुत संहिता ही उपलब्ध है | अन्य संहिता ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है क्योकि विदेशी आक्रमण करी मुगलों ने इन्हें नष्ट कर दिया | सुश्रुत संहिता में शल्य परक विशेष विवरण होते हुए भी अन्य अंगो को छोड़ा नहीं है , उनका भी युक्तिपरक विवेचन उपलब्ध है |

आयुर्वेद के अंग ( Parts of Ayurveda)

शरीर की उपचार व्यवस्था में विभिन्नता होने के कारण विशेष चिकित्सा की आवश्यकता होती है | इसलिए आचार्यो ने आयुर्वेद को शाखाओ में विभक्त किया | संहिता काल में किसी भी विज्ञानं की उन्नति का प्रतिक उसकी विभिन्न शाखाए होती है | जितना इन पर शोध किया जाता रहा उतना ही शाखाए विभक्त होती गई |

आचार्यो ने मनुष्य की आयु और अल्पता का विचार कर आयुर्वेद को 8 अंगो में विभक्त किया |

1. शल्य तन्त्र (Surgery) – शल्य तन्त्र अर्थात सर्जरी | अनेक प्रकार के घास,लकड़ी , पत्थर, धातु, मिटटी, हड्डी ,आदि के शारीर में प्रविष्ट होने पर उन्हें निकलने के लिए यंत्र शस्त्र , क्षार कर्म , अग्नि कर्म आदि का प्रयोग कर के इन शल्यो को शरीर से बाहर निकलने की विद्या ही शल्य तंत्र कहलाती है |

2. शालाक्य तंत्र (E.N.T Treatment of eyes, ears, nose, throat and head )– गर्दन से ऊपर के अंगो अर्थात कान, आँख, मुंह, नाक आदि अंगो में उत्पन्न हुए रोगों की शांति के लिए जिस अयुर्वेदांग में  वर्णन मिलता है वाही शालाक्य तंत्र कहलाता है | हमारे वेदों में ऋग्वेद में भी अश्विनी कुमारो के द्वारा शालाक्य के द्वारा चिकित्सा करने का उल्लेख मिलता है |

3. कायचिकित्सा (Medicine) – आयुर्वेद के सभी अंगो में काय चिकित्सा का प्रमुख स्थान है  | काय चिकत्सा का उदहारण ऋग्वेद में भी मिलता है | अश्विनी कुमारो के द्वारा कई चमत्कारिक उदाह्ह्रण उप्लाब्ध है | यजुर्वेद में भी अर्स रोग , श्लीपद,  कुष्ठ रोग और चर्म  रोगों की चिकित्सा का उल्लेख मिलता है |

अन्य आयुर्वेद के अंगो का वर्णन भी पोरानिक ग्रंथो में यदा  – कदा मिलता है | लेकिन इनका पूर्ण विस्तार संहिता काल के उपरांत ही हुआ है |

4. अगद तंत्र (Toxicology)
5. कौमार भृत्य (Pediatric)
6. रसायन तंत्र (Gerentorology)
7. वाजीकरण (Aphrodisiacs)
8. भूत विद्या

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